कविता
---------
छाया
--------
धूप में झुलसता रहा
जीवन भर
छाया कभी मिली नहीं
भीगा कुछ देर
बरसात में भी
धूप खिली रही
छाया तो दूर ही रही
मुझ से यहाँ तक कि
अपनी छाया भी
कभी दिखी नहीं
----------
( "परिकथा" मई - जून ' 2017 में प्रकाशित )
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें